विरह-वेदना
दोहा
सावन आया हे सखी, हरे हूए सब बाग।
पिव मेरा परदेश में, बैठी कोसुं भाग।।
तन में तुम बिन साजना, बिरहन उठे हिलोर।
पिव दर्शन कब पाऊंगी, सोचत हो गयी भोर।।
बिरहन तरसे सेज पर, अंगना बरसे मेह।
होङा होङी कर रहे, इत सावन उत देह।।
परबत हरियाली भई, मस्त भये सब मोर।
बिरहन राह निहारती, कब आयें चितचोर।।
सावन आया हे सखी, पीव पुकारे गात।
विष जैसी लागै बुरी, बिन पिव के बरसात।।
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